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ध्यान  : पुं० [सं०√ध्यै+ल्युट्—अन] १. अंतःकरण या मन की वह वृत्ति या स्थिति जिसमें वह किसी चीज या बात के संबंध में चिंतन, मनन या विचार करने में अग्रसर या प्रवृत्त होता। किसी विषय को मानस-क्षेत्र में लाने या प्रत्यक्ष करने की अवस्था या भाव। मन का किसी विशिष्ट काम या बात की ओर लगना या होना। खयाल। जैसे—(क) हमारी बात ध्यान से सुनो। (ख) अभी वे किसी और ध्यान में हैं, उन्हें मत छेड़ो। क्रि० प्र०—आना।—जाना।—दिलना।—देना।—लगना।—लगाना। विशेष—मानसिक और शारीरिक क्षेत्रों के अधिकतर कामों में हम मुख्यतः ध्यान की प्रेरणा और बल से ही प्रवृत्त होते हैं। कभी तो बाह्य इंद्रियों का कोई व्यापार हमारा ध्यान किसी ओर लगाता है,(जैसे—कोई चीज दिखाई पड़ने पर उसकी ओर ध्यान जाना) और कभी मन स्वतः किसी प्रकार के ध्यान में लग जाता है;(जैसे—कोई बात याद आने पर उसकी ओर ध्यान जाना या लगना)। यह हमारे अंतःकरण या चेतना की जाग्रत अवस्था का ऐसा व्यापार है जिससे कोई बात, भाव या रूप हमारे विचार का केन्द्र बन जाता या हमारे मन में सर्वोपरि हो जाता है। मुहा०—(किसी चीज या बात पर) ध्यान जमना=चित्त का एकाग्र होकर किसी ओर उन्मुख होना। किसी काम या बात में मन का समुचित रूप से प्रवृत्त होकर स्थित होना। ध्यान बँटना=जब ध्यान एक ओर लगा हो, तब कोई दूसरा काम या बात सामने आने पर उसमें बाधा या विध्न होना। ध्यान बँधना या लगना=(क) दे० ऊपर ‘ध्यान जमना’। (ख) किसी प्रकार के मानसिक चिंतन का क्रम बराबर चलता रहना। जैसे—जब से उनकी बीमारी का समाचार मिला है, तब से हमारा ध्यान उन्हीं की तरफ बँधा (या लगा) है। (किसी के) ध्यान में डूबना, मग्न होना या लगना=किसी के चिंतन, मनन या विचार में इस प्रकार प्रवृत्त या लीन होना कि दूसरी बातों की चिंता, विचार या स्मरण ही न रह जाय। उदा०—कब की ध्यान-लगी लखैं, यह घरु लगिहै काहि।—बिहारी। (किसी को) ध्यान में लाना=(क) किसी को अपने मानस-क्षेत्र में स्थान देना या स्थापित करना। बराबर मन में बनाये रखना। उदा०—(क) ध्यान आनि ढिग प्रान—पति रहति मुदित दिन राति।—बिहारी। (ख) किसी का कुछ महत्त्व समझाते या सम्मान करते हुए उसके संबंध में कुछ विचार करना या सोचना। चिंता या परवाह करना। जैसे—वह तुम्हारे भाई साहब को तो ध्यान में लाता ही नहीं, तुम्हें वह क्या समझेगा! (किसी काम, चीज या बात का) ध्यान रखना=इस प्रकार सतर्क या सावधान रहना कि कोई अनुचित या अवांछनीय काम या बात न होने पावे अथवा कोई क्रम इष्ट और यथोचित रूप में चलता रहे। जैसे—(क) ध्यान रखना; यहाँ से कोई चीज गुम न होने पावे। (ख) हमारी अनुपस्थित में रोगी का ध्यान रखना। पद—ध्यान से=तत्पर, दत्तचित्त या सावधान होकर। जैसे—चिट्ठी जरा ध्यान से पढ़ो। २. अंतःकरण या मन की वह वृति या शक्ति जो उसे किसी चीज या बात का बोध कराती, उसमें कोई धारणा उत्पन्न करती अथवा कोई स्मृति जाग्रत करती है। जैसे—हमने उन्हें एक बार देखा तो है, पर उनकी आकृति हमारे ध्यान में नहीं आ रही। मुहा०—ध्यान पर चढ़ना= किसी बात का चित्त या मन में कुछ समय के लिए अपना स्थान बना लेना। जैसे—अब तक वही दृश्य हमारे ध्यान पर चढ़ा है। ध्यान से उतरना=ध्यान के क्षेत्र से बाहर हो जाना। याद न रह जाना। जैसे—आपकी पुस्तक लाना मेरे ध्यान से उतर गया। ३. धार्मिक क्षेत्र में उपासना, पूजा आदि के समय अपने इष्टदेव अथवा अध्यात्म-संबंधी तत्वों या विषयों के संबंध में भक्ति और श्रद्धा से मन में शांतिपूर्वक किया जानेवाला चिंतन, मनन या विचार। उदा०—बहुरि गौरि कर ध्यान करेहू।—तुलसी। क्रि० प्र०—करना।—छूटना।—टूटना।—लगना।—लगाना। विशेष—उसका मुख्य उद्देश्य यही होता है कि ध्याता अपने ध्येय के विचार में तन्मय और लीन होकर उसके साथ तादात्म्य स्थापित करने का प्रयत्न करे। श्रृंगारिक क्षेत्र में प्रिय का किया जानेवाला ध्यान भी बहुत-कुछ इसी प्रकार का होता है। यथा—पिय कै ध्यान गही गही, रही वही ह्वै नारी।—बिहारी। मुहा०—(किसी का) ध्यान करना=अपने मन के सामने किसी की मूर्ति या रूप रखकर उसके चिंतन या मनन में लीन होना। परमात्माचिंतन के लिए मन एकाग्र करके बैठना। जैसे—अपने इष्टदेव या ईश्वर का ध्यान करना। ४. योगशास्त्र में, आत्मा और परमात्मा के स्वरूप का साक्षात्कार करने के लिए चित्त या मन पूरी तरह से एकाग्र और स्थिर करने की क्रिया या भाव। विशेष—योग के आठ अंगों में ‘ध्यान’ सातवाँ अंग कहा गया है। यह ‘धारणा’ नामक अंग के बाद आनेवाली वह स्थिति है जिसमें धारणीय तत्व के साथ चित्त एक-रस हो जाता है। इसी की चरम तथा पूर्ण अवस्था ‘समाधि’ कहलाती है। जैन और बौध में भी इस प्रकार के ‘ध्यान’का विशेष महत्व है। ५. किसी अमूर्त तत्त्व को व्यक्ति के रूप में मानकर उसके कल्पित गुण, मुद्रा, स्थिति आदि के आधार पर स्थिर की हुई वह प्रतिकृति या मूर्ति जो हम अपने मानस-क्षेत्र में उसके प्रत्यक्ष दर्शन या साक्षातकार के लिए कल्पित या निरूपित करते हैं। विशेष—धार्मिक ग्रंथों में देवी-देवताओं, तांत्रिक ग्रंथों में मंत्र-यंत्रों, संगीतशास्त्र के ग्रंथों में राग रागिनियों और साहित्यिक ग्रंथों में ऋतुओं, रसों आदि के इस प्रकार के विशिष्ट ध्यान छंदोबद्ध रूप में निरूपित हैं। जिनके आधार पर उनके चित्र, मूर्तियाँ आदि बनाई जाती हैं।
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ध्यान-योग  : पुं० [मध्य० स०] योग अर्थात् कार्य—साधन का वह प्रकार जिसमें ध्यान की प्राधानता हो।
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ध्यानस्थ  : वि० [सं० ध्यान√स्था (ठहरना)+क] जो ध्यान करने में मग्न या लगा हुआ हो। ध्यान में लीन।
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ध्याना  : सं० [सं० ध्यान] १. किसी विषय, व्यक्ति आदि का ध्यान करना। २. ईश्वर का चिंतन करना।
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ध्यानावस्थित  : वि० [ध्यान-अवस्थित, स० त०]=ध्यानस्थ।
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ध्यानिक  : वि० [सं० ध्यान+ठक्—इक] १. ध्यान-संबंधी। ध्यान का। २. जो ध्यान के द्वारा प्राप्त या सिद्ध हो सके। ध्यान-साध्य।
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ध्यानिक बुद्ध  : पुं० [सं०] एक प्रकार के अशरीरी बुद्ध जिनकी संख्या १0 कही गई है।
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ध्यानी (निन्)  : वि० [सं० ध्यान+इनि] १. ध्यान करनेवाला। २. जो ध्यान लगाकर बैठता या बैठा हो। ३. समाधि लगानेवाला (योगी)।
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